बुधवार, १७ मे, २०१७

किनारा


किनारा

उमडते है कभी कभी
यहां के सभी नदी किनारे
प्रेम कुजन चलें कहां
कहां बिदाई में मिलतें सारे

बहाता है सुख-दुःखों को
जाने कहां तक यह किनारा
मुकांध हो कर रात दिन
रहता है गवाह यह बेचारा

अलग, निशब्द रहना यहां
कैसे संभव इसे समझुं ना
तोड़ना चांहू यह सौहार्द
सोचकर भी मै  समझुं ना

© शिवाजी सांगळे 🎭
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